ये जो एक दूसरे को समझने के किस्से कहे जाते है।
ये शिर्फ़ कुछ धूल खाती किताबो में ही रहे जाते हैं।
समझने को हम भी कलम किताब ले कर बैठते हैंये रिस्ते पढ़ने लिखने से भी, कहाँ समझ में आते है।
जॉन,गुलजार, ग़ालिब जो बात कहना चाहते थेशमन के भी लब्ज वहीं आकर के ठहर जाते है।
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