की बूंदें हवा को चीरती है
चीखता है मन!
सनसनाहट सुनाई देने लगती है,
नशों की कानो में!
फिर कुछ ही देर में
ठंढी हवा झोका
मन स्थिर करता है।
टिप-टिपाहट की आवाज के साथ
पानी फिरी हुई
जिग्यासाओ पर
पड़ी मिट्टी को कुरेद कर
गड़े मुर्दे निकलती है ",बारिस"
सुरुआत में
कई बूंदे अपना अस्तित्व खोकर
अपनी पीढ़ी पालने का
हेतु बनती हैं
बूंदे मनुष्यता के कारण
मिलकर बहाव उत्पन्न करती है
बहती है उर्ध्व से निजता की वोर
जिसे भरता है गड्ढा
जिसके साथ कई यादें
पुराने घाव खोदकर निकले
मरे खून से मन को भरती है
भरती है आँखे
और फिर होती है ",बारिस"
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