जब वक्त परछाई में
गहरी सी तन्हाई में
एक साम जरा तुम रुक जाना
धीरे से कुछ भी कहा जाना
उस बार सफाई न मागूँगा
बस राग विरह के गाऊंगा
न राह निहारेगी मुझको
न रस्ता ताकेगा मुझको
न वापस मैं भी आऊँगा
न कोई सफाई मागूँगा
इस वसुधा पर जब तक सत्यम
आँख खोलकर जागूगा
बस तेरा होकर राह जाउगा
बस तेरा होकर राह जाउगा
...
जब तक जीवन की रेखा
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा
किस आस के करण विरहित हूँ
क्या पाप किया जो पराधीन
किस पाप की गठरी में खो कर
कर दिया ह्रदय को लहू विहीन
इस गिरती हुई लहू धारा में
बह कर भी न आना तुम
जैसे सब वादे भूल पायी हो
चेहरा भी मेरा भुलाना तुम
न तुम से कुछ भी पुछूग
सही गलत की बाते भी
जो न गुजरी फिर भी गुजरी
वो सारी गुजरी राते भी
मैं खा जाउगा कसम तुम्हारी
हाँ न आई तेरी यादें भी
न तुम से गुस्सा होऊँगा
अब न तेरे आगे रोऊंगा
तुझको जीवन भर खुशी मिले
जो दिल चाहे वो पा जाना
एक साम.....
क्या देखा क्या अनदेखा
वक्त की इस पुरवाई में
सुरु जहां से खत्म वहीं
उसकी छुपा छुपाई में
उसके वादे उसकी सिद्दत वो जाने
मन उसका, उसकी मोहब्बत वो जाने
कह देना मिले शमन तो
मेरी गलती लिख कर देगा
जो मेरे हक़ में बनती हो
वो सजा भी मुझे सुना देगा
उसकी बनाई आदत है
हर दर्द को हंस के सह लूँगा
न मैं वापस आऊँगा
न कोई सफाई मागूँगा